बुधवार, 15 दिसंबर 2010

सार्थक जीवन ही तब कहलाया

बोगेनवेलिया की गंधहीन बेलो में
सौन्दर्य फूलो का इतराया
तो महक उठा गुलाब फ़ूल भी
लावण्य संग सौरभ को लाया
फिर चहक उठी इतने में ही
गुलमोहर की शीतल छाया
सौदर्य गंध है अर्थहीन ही
राही को जब तक न सुख पहुचाया
पेड़ पुष्प बेल संवाद सुन कर
दूब के त्रण का स्वर लहराया
उसका कहना था की मित्रो
सार्थक जीवन ही तब कहलाया
जब छांव संग सौन्दर्य संग ही
वनचर की भूख जो हर पाया

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न बिकती हर चीज

लज्जा का आभूषण करुणा  के बीज कौशल्या सी नारी तिथियों मे तीज  ह्रदय मे वत्सलता  गुणीयों का रत्न   नियति भी लिखती है  न बिकती हर चीज