मंगलवार, 2 अगस्त 2011

भूली यादो के सिरहाने सपने है आते

दिवस के प्रहर लम्बे खीचते जाते
एकांतो के घेरो में हम खुद को पाते

खिसकती कच्ची दिवाले
लग चुके द्वारो पे ताले
जुगुनुओ के अंधेरो से गहरे है नाते
चमगादड़ के स्वर सन्नाटो को है भाते

कमरों के कोने है काले
मकड़ियो ने जकडे जाले
मधुमक्खियो के वृहद् छत्ते
ऊँची सी छत को सम्हाले
भूली यादो के सिरहाने सपने है आते

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न बिकती हर चीज

लज्जा का आभूषण करुणा  के बीज कौशल्या सी नारी तिथियों मे तीज  ह्रदय मे वत्सलता  गुणीयों का रत्न   नियति भी लिखती है  न बिकती हर चीज