सोमवार, 30 अप्रैल 2012

हे मात! तेरे ही लिये


हे मात! तेरे ही लिये ,निज प्राण का उत्सर्ग है
निर्झर नदी हिमभूमी पर्वत,विकसित धरा है स्वर्ग है

ऋतुये विविध चहु  और है जन्मे यहा पर देव है
रही क्यारिया केसर भरी लटके यहा फल सेव है
तन-मन हुये पुलकित नयन बिखरा यहा निसर्ग है
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मधुपान करता है जीवन ,तपोभूमी पर है आचमन 
खेले यहा राधा-रमण,श्रीराम का वन मे गमन
सभी धातुये तुझमे रही ,रहता यहा हर वर्ग है
सेवा करे रेवा सदा ,निमाड है मालव भूमी
पर्वत खडे महादेव से,ऊँची चोटिया नभ ने चूमी
शिव शक्ति सा है आचरण ,उनका यहा संसर्ग है

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न बिकती हर चीज

लज्जा का आभूषण करुणा  के बीज कौशल्या सी नारी तिथियों मे तीज  ह्रदय मे वत्सलता  गुणीयों का रत्न   नियति भी लिखती है  न बिकती हर चीज